1.
जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिये ज्ञान,
मोल करो तलवार का, पड़ा रहन दो म्यान।
अर्थ: - ज्ञान का महत्वा धर्म से कही ज्यादा ऊपर है इसलिए किसी भी सज्जन के धर्म को किनारे रख कर उसके ज्ञान को महत्वा देना चाहिए। कबीर दस जी उदाहरण लेते हुए कहते है कि - जिस प्रकार मुसीबत में तलवार काम आता है न की उसको ढकने वाला म्यान, उसी प्रकार किसी विकट परिस्थिती में सज्जन का ज्ञान काम आता है, न की उसके जाती या धर्म काम आता है।
मोल करो तलवार का, पड़ा रहन दो म्यान।
अर्थ: - ज्ञान का महत्वा धर्म से कही ज्यादा ऊपर है इसलिए किसी भी सज्जन के धर्म को किनारे रख कर उसके ज्ञान को महत्वा देना चाहिए। कबीर दस जी उदाहरण लेते हुए कहते है कि - जिस प्रकार मुसीबत में तलवार काम आता है न की उसको ढकने वाला म्यान, उसी प्रकार किसी विकट परिस्थिती में सज्जन का ज्ञान काम आता है, न की उसके जाती या धर्म काम आता है।
2.
धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय,
माली सींचे सौ घड़ा, ॠतु आए फल होय।
अर्थ: - कबीर दस जी कहते है कि किसी भी कार्य को पूरा होने के लिए एक उचित समय सीमा की आवश्यकता होती है, उससे पहले कुछ भी नहीं हो सकता। इसलिए हमे अपने मन में धैर्य रखना चाहिए और अपने काम को पूरी निष्ठा से करते रहना चाहिए। उदाहरण के तौर पे - यदि माली किसी पेड़ को सौ घड़ा पानी सींचने लगे तब भी उसे ऋतू आने पर ही फल मिलेगा। इसलिए हमे धीरज रखते हुए अपने कार्य को करते रहना चाहिए, समय आने पर फल जरूर मिलेगा।
धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय,
माली सींचे सौ घड़ा, ॠतु आए फल होय।
अर्थ: - कबीर दस जी कहते है कि किसी भी कार्य को पूरा होने के लिए एक उचित समय सीमा की आवश्यकता होती है, उससे पहले कुछ भी नहीं हो सकता। इसलिए हमे अपने मन में धैर्य रखना चाहिए और अपने काम को पूरी निष्ठा से करते रहना चाहिए। उदाहरण के तौर पे - यदि माली किसी पेड़ को सौ घड़ा पानी सींचने लगे तब भी उसे ऋतू आने पर ही फल मिलेगा। इसलिए हमे धीरज रखते हुए अपने कार्य को करते रहना चाहिए, समय आने पर फल जरूर मिलेगा।
3.
तिनका कबहुँ ना निन्दिये, जो पाँवन तर होय,
कबहुँ उड़ी आँखीन पड़े, तो पिर घनेरि होय।
अर्थ: - कबीर जी कहते है कि हमारे पाँव के निचे जो छोटा सा तिनका दबा हुआ रहता है हमे उसकी भी कभी निंदा नहीं करनी चाहिए, क्योंकि यदि वही छोटा तिनका उड़ कर हमारे आखो में आ गया तो अत्यधिक पीड़ा का कारण बन जाता है। अथार्थ इस दुनिया में हर एक छोटे से छोटे चीज़ भी अगर सही जगह में पहुंच गया तो हमारे लिए काफी संकट पैदा कर सकता है। इसलिए हमे किसी की भी निंदा नहीं करनी चाहिए चाहे वह छोटा हो या बड़ा।
तिनका कबहुँ ना निन्दिये, जो पाँवन तर होय,
कबहुँ उड़ी आँखीन पड़े, तो पिर घनेरि होय।
अर्थ: - कबीर जी कहते है कि हमारे पाँव के निचे जो छोटा सा तिनका दबा हुआ रहता है हमे उसकी भी कभी निंदा नहीं करनी चाहिए, क्योंकि यदि वही छोटा तिनका उड़ कर हमारे आखो में आ गया तो अत्यधिक पीड़ा का कारण बन जाता है। अथार्थ इस दुनिया में हर एक छोटे से छोटे चीज़ भी अगर सही जगह में पहुंच गया तो हमारे लिए काफी संकट पैदा कर सकता है। इसलिए हमे किसी की भी निंदा नहीं करनी चाहिए चाहे वह छोटा हो या बड़ा।
4.
लूट सके तो लूट ले, राम नाम की लूट ।
पाछे फिर पछ्ताओगे, प्राण जाही जब छूट ।।
अर्थ: - कबीर जी कहते है कि जब तक तुम जिन्दा हो, ईश्वर का नाम लो उसकी पूजा करो नहीं तो मरने के बाद तुम्हे पछताना पड़ेगा।
लूट सके तो लूट ले, राम नाम की लूट ।
पाछे फिर पछ्ताओगे, प्राण जाही जब छूट ।।
अर्थ: - कबीर जी कहते है कि जब तक तुम जिन्दा हो, ईश्वर का नाम लो उसकी पूजा करो नहीं तो मरने के बाद तुम्हे पछताना पड़ेगा।
5.
काल करे सो आज कर, आज करे सो अब ।
पल में प्रलय होएगी, बहुरी करेगा कब ।।
अर्थ: - समय का महत्व समझते हुए कबीर जी कहते है कि जो कार्य तुम कल के लिए छोड़ रहे हो उसे आज करो और जो कार्य आज के लिए छोड़ रहे हो उसे अभी करो, कुछ ही वक़्त में तुम्हारा जीवन ख़त्म हो जाएगा तो फिर तुम इतने सरे काम कब करोगे। अथार्त हमे किसी भी काम को तुरंत करना चाहिए उसे बाद के लिए नहीं छोड़ना चाहिए।
काल करे सो आज कर, आज करे सो अब ।
पल में प्रलय होएगी, बहुरी करेगा कब ।।
अर्थ: - समय का महत्व समझते हुए कबीर जी कहते है कि जो कार्य तुम कल के लिए छोड़ रहे हो उसे आज करो और जो कार्य आज के लिए छोड़ रहे हो उसे अभी करो, कुछ ही वक़्त में तुम्हारा जीवन ख़त्म हो जाएगा तो फिर तुम इतने सरे काम कब करोगे। अथार्त हमे किसी भी काम को तुरंत करना चाहिए उसे बाद के लिए नहीं छोड़ना चाहिए।
6.
साईं इतना दीजिये, जा के कुटुम्ब समाए ।
मैं भी भुखा न रहू, साधू ना भुखा जाय ।।
अर्थ: - संत कबीर जी कहते है कि हे ईश्वर मुझे इतना दो की मै अपने परिजनों का, अपने परिवार का गुजरा कर सकू। मैं भी भर पेट खाना खा सकू और आने वाले सज्जन को भी भर पेट खाना खिला सकू। अथार्त हमे बहुत अधिक धन की लालच नहीं करनी चाहिए, हमे इतने में ही संतोष कर लेने चाहिए जितने में हम अपने और अपने परिजनों को भर पेट खाना खिला सके।
साईं इतना दीजिये, जा के कुटुम्ब समाए ।
मैं भी भुखा न रहू, साधू ना भुखा जाय ।।
अर्थ: - संत कबीर जी कहते है कि हे ईश्वर मुझे इतना दो की मै अपने परिजनों का, अपने परिवार का गुजरा कर सकू। मैं भी भर पेट खाना खा सकू और आने वाले सज्जन को भी भर पेट खाना खिला सकू। अथार्त हमे बहुत अधिक धन की लालच नहीं करनी चाहिए, हमे इतने में ही संतोष कर लेने चाहिए जितने में हम अपने और अपने परिजनों को भर पेट खाना खिला सके।
7.
दुःख में सुमिरन सब करे, सुख में करै न कोय ।
जो सुख मे सुमीरन करे, तो दुःख काहे को होय ।।
अर्थ: - जब हमे कोई दुःख होता है अथार्त कोई परेशानी होती है या चोट लता है तब जाके हम सतर्क होते है और खुद का ख्याल रखते है। कबीर जी कहते है कि यदि हम सुख में अथार्त अच्छे समय में ही सचेत और सतर्क रहने लगे तो दुःख कभी आएगा ही नहीं। अथार्थ हमे सचेत होने के लिए बुरे वक़्त का इंतेज़ार नहीं करना चाहिए।
दुःख में सुमिरन सब करे, सुख में करै न कोय ।
जो सुख मे सुमीरन करे, तो दुःख काहे को होय ।।
अर्थ: - जब हमे कोई दुःख होता है अथार्त कोई परेशानी होती है या चोट लता है तब जाके हम सतर्क होते है और खुद का ख्याल रखते है। कबीर जी कहते है कि यदि हम सुख में अथार्त अच्छे समय में ही सचेत और सतर्क रहने लगे तो दुःख कभी आएगा ही नहीं। अथार्थ हमे सचेत होने के लिए बुरे वक़्त का इंतेज़ार नहीं करना चाहिए।
8.
अति का भला न बोलना, अति की भली न चूप,
अती का भला न बरसना, अती कि भलि न धूप ।
अर्थ: - कबीर जी उदाहरण लेते हुए बोलते है कि जिस प्रकार जरुरत से ज्यादा बारिस भी हानिकारक होता है और जरुरत से ज्यादा धुप भी हानिकारक होता है - उसी प्रकार हम सब का न तो बहुत अधिक बोलना उचित रहता है और न ही बहुत अधिक चुप रहना ठीक रहता है। अथार्थ हम जो बोलते है वो बहुत अनमोल है इसलिए हमे सोच समझ कर काम सब्दो में अपने बातो को बोलना चाहिए।
अति का भला न बोलना, अति की भली न चूप,
अती का भला न बरसना, अती कि भलि न धूप ।
अर्थ: - कबीर जी उदाहरण लेते हुए बोलते है कि जिस प्रकार जरुरत से ज्यादा बारिस भी हानिकारक होता है और जरुरत से ज्यादा धुप भी हानिकारक होता है - उसी प्रकार हम सब का न तो बहुत अधिक बोलना उचित रहता है और न ही बहुत अधिक चुप रहना ठीक रहता है। अथार्थ हम जो बोलते है वो बहुत अनमोल है इसलिए हमे सोच समझ कर काम सब्दो में अपने बातो को बोलना चाहिए।
9.
बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय,
जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय ।
अर्थ: - कबीर दस जी कहते है कि जब मै इस दुनिया में लोगो के अंदर बुराई ढूंढ़ने निकला तो कही भी मुझे बुरा व्यक्ति नहीं मिला, फिर जब मैंने अपने अंदर टटोल कर देखा तो पाया कि मुझसे बुरा व्यक्ति इस जग में और कोई नहीं है।अथार्त हमें दूशरो के अंदर बुराई ढूंढ़ने से पहले खुद के अंदर झाक कर देखना चाहिए और तब हमे पता चलेगा कि हमसे ज्यादा बुरा व्यक्ति इस संसार में और कोई नहीं है।
बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय,
जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय ।
अर्थ: - कबीर दस जी कहते है कि जब मै इस दुनिया में लोगो के अंदर बुराई ढूंढ़ने निकला तो कही भी मुझे बुरा व्यक्ति नहीं मिला, फिर जब मैंने अपने अंदर टटोल कर देखा तो पाया कि मुझसे बुरा व्यक्ति इस जग में और कोई नहीं है।अथार्त हमें दूशरो के अंदर बुराई ढूंढ़ने से पहले खुद के अंदर झाक कर देखना चाहिए और तब हमे पता चलेगा कि हमसे ज्यादा बुरा व्यक्ति इस संसार में और कोई नहीं है।
10.
साधु ऐसा चाहिए, जैसा सूप सुभाय,
सार-सार को गही रहै, थोथी देई उड़ाय ।
अर्थ: - कबीर जी कहते है कि हमे ऐसे सज्जन कि आवश्कता है जिसका स्वभाव अनाज को साफ़ करने वाला सुप की तरह हो, अनाज को बचते हुए वह वहा से बाकि सारी घास फुस अथवा और गंदगीओ हो हटा दे। अथार्त सज्जन को ऐसा होना चाहिए जिसे सही गलत का और अच्छे बुरे का फर्क करने आता हो , जो सबकी मदद करे और जो अच्छाई को बचते हुए सबसे बुराई को निकल दे।
साधु ऐसा चाहिए, जैसा सूप सुभाय,
सार-सार को गही रहै, थोथी देई उड़ाय ।
अर्थ: - कबीर जी कहते है कि हमे ऐसे सज्जन कि आवश्कता है जिसका स्वभाव अनाज को साफ़ करने वाला सुप की तरह हो, अनाज को बचते हुए वह वहा से बाकि सारी घास फुस अथवा और गंदगीओ हो हटा दे। अथार्त सज्जन को ऐसा होना चाहिए जिसे सही गलत का और अच्छे बुरे का फर्क करने आता हो , जो सबकी मदद करे और जो अच्छाई को बचते हुए सबसे बुराई को निकल दे।
11.
पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय,
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय ।
अर्थ: - कबीर जी सच्चे ज्ञानी की परिभासा देते हुए कहते है की इस दुनिया में न जाने कितने लोग आये और मोटी मोटी किताबे पढ़ कर चले गए पर कोई भी सच्चा ज्ञानी नहीं बन सका। सच्चा ज्ञानी वही है, जो प्रेम का ढाई अक्छर पढ़ा हो - अथार्त जो प्रेम का वास्तविक रूप पहचानता हो। इस जगत में बहुत से ऐसे लोग है जो बड़ी बड़ी किताबे पढ़ लेते है फिर भी वे लोग प्रेम का सही अर्थ नहीं समझ पते है।
पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय,
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय ।
अर्थ: - कबीर जी सच्चे ज्ञानी की परिभासा देते हुए कहते है की इस दुनिया में न जाने कितने लोग आये और मोटी मोटी किताबे पढ़ कर चले गए पर कोई भी सच्चा ज्ञानी नहीं बन सका। सच्चा ज्ञानी वही है, जो प्रेम का ढाई अक्छर पढ़ा हो - अथार्त जो प्रेम का वास्तविक रूप पहचानता हो। इस जगत में बहुत से ऐसे लोग है जो बड़ी बड़ी किताबे पढ़ लेते है फिर भी वे लोग प्रेम का सही अर्थ नहीं समझ पते है।
12.
पतिबरता मैली भली, गले कांच की पोत ।
सब सखियन मे यो दीपै, ज्यो रवि शीश की जोत ।।
अर्थ: - संत कबीर जी कहते है कि यदि कोई स्त्री पति व्रता है - तो फिर चाहे उसके गले में सुहाग के नाम पर सिर्फ कच का एक माला हो या वो तन से मैली भी है, फिर भी वो अपने सभी सखी सहेलियो में सूर्य के किरण सामान चमकति है। अथार्त जो स्त्री पति व्रता है उसे सुन्दर दिखने के लिए किसी भी गहने या सेज सजावट की आवश्कता नहीं है।
पतिबरता मैली भली, गले कांच की पोत ।
सब सखियन मे यो दीपै, ज्यो रवि शीश की जोत ।।
अर्थ: - संत कबीर जी कहते है कि यदि कोई स्त्री पति व्रता है - तो फिर चाहे उसके गले में सुहाग के नाम पर सिर्फ कच का एक माला हो या वो तन से मैली भी है, फिर भी वो अपने सभी सखी सहेलियो में सूर्य के किरण सामान चमकति है। अथार्त जो स्त्री पति व्रता है उसे सुन्दर दिखने के लिए किसी भी गहने या सेज सजावट की आवश्कता नहीं है।
13.
कबीर हमारा कोई नहीं, हम काहू के नाहिं ।
पारै पहुंचे नाव ज्यौ, मीलके बिछुरी जाह ।।
अर्थ: - संत कबीर जी इस दुनिया को एक नाव बताते हुए कहते है कि - इस संसार रूपी नाव में हमारा कोई नहीं है और न ही हम किसी के है। ज्यो ही नाव किनारे पर पहुंचेगी हम सब बिछुड़ जायेगे। अथार्त इस संसार रूपी नाव में हमारा अपना कोई भी नहीं है और न ही हम किसी के अपने है, कोई भी इस संसार में सदा एक साथ नहीं रह सकता एक न एक दिन सबको अलग अलग होना ही पड़ता है।
कबीर हमारा कोई नहीं, हम काहू के नाहिं ।
पारै पहुंचे नाव ज्यौ, मीलके बिछुरी जाह ।।
अर्थ: - संत कबीर जी इस दुनिया को एक नाव बताते हुए कहते है कि - इस संसार रूपी नाव में हमारा कोई नहीं है और न ही हम किसी के है। ज्यो ही नाव किनारे पर पहुंचेगी हम सब बिछुड़ जायेगे। अथार्त इस संसार रूपी नाव में हमारा अपना कोई भी नहीं है और न ही हम किसी के अपने है, कोई भी इस संसार में सदा एक साथ नहीं रह सकता एक न एक दिन सबको अलग अलग होना ही पड़ता है।
15.
माटी का एक नाग बनाके, पूजे लोग लुगाया ।
जिन्दा नाग जब घर में निकले, ले लाठी धमकाया ।।
अर्थ: - लोग पूजा पाठ में आडंबर और दिखावा करते है, मसलन साप की पूजा करने के लिए वे माटी का साप बनाते है। लेकिन वास्तव में जब वही साप उसके घर चला आता है तो उसे लाठी से पिट पिट कर मार दिया जाता है। अथार्थ कबीर जी पूजा की ओर ध्यान आकर्षित करते हुए संदेश देते है कि दिखावे के पूजे से कोई लाभ नहीं। दिखावे के पूजे से मन को झूठी तसली दी जा सकती है, ईश्वर की प्राप्ति नहीं की जा सकती।
माटी का एक नाग बनाके, पूजे लोग लुगाया ।
जिन्दा नाग जब घर में निकले, ले लाठी धमकाया ।।
अर्थ: - लोग पूजा पाठ में आडंबर और दिखावा करते है, मसलन साप की पूजा करने के लिए वे माटी का साप बनाते है। लेकिन वास्तव में जब वही साप उसके घर चला आता है तो उसे लाठी से पिट पिट कर मार दिया जाता है। अथार्थ कबीर जी पूजा की ओर ध्यान आकर्षित करते हुए संदेश देते है कि दिखावे के पूजे से कोई लाभ नहीं। दिखावे के पूजे से मन को झूठी तसली दी जा सकती है, ईश्वर की प्राप्ति नहीं की जा सकती।
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