छठ मनाने का वैज्ञानिक कारण, पढ़ें और दूसरों के साथ साझा करें ।


ठ महापर्व कई मायनों में आधिकारिक रूप से पूर्वांचल का सांस्कृतिक हस्ताक्षर है, किंवदंतियों की मानें तो अंगराज कर्ण ने भोजपुर के पास (अंग प्रदेश में) विधिवत छठ व्रत सम्पन्न किया। गंगा जी के जल में अर्घ्य दिया। कहा जाता है कि वनवास के दौरान द्रौपदी ने भी पांडवों के राज्य वापसी और राजयोग मिलने की कामना से छठ व्रत किया। यमुना जी के जल में अर्घ्य दिया। सीता माँ ने भी सरयू नदी में अर्घ्य देकर विधिवत छठ व्रत सम्पन्न किया था। कहा जाता है कि श्रीकृष्ण के प्रपौत्र को जब कुष्ठरोग हुआ तो उन्होंने कलिंग प्रदेश (ओड़िशा) आकर सुवर्णरेखा नदी के किनारे छठ व्रत सम्पन्न किया। बाद में वहाँ सूर्यदेव का मंदिर - कोणार्क - भी स्थापित किया गया। इन दंतकथाओं का उल्लेख पुराणों में भी मिलता है। 


छठ व्रत की सबसे अनूठी बात यह है कि ये महापर्व लोक का पर्व है, श्लोक का नहीं। इसमें ना किसी जाति का बंधन है, ना जातित्व की बंदिशें। छठ व्रत कोई भी विवाहित या विवाहिता कर सकते हैं। कोई भी व्यक्ति इस अखंड व्रत का अनुष्ठान मात्र श्रद्धा और भक्ति से कर सकता है।  

इस पर्व में सूर्य की उपासना होती है। बहुत कठिन नियमों    के अनुपालन के साथ सूर्य देव और उनकी बहन छठी माँ का आह्वान कर उनकी पूजा अर्चना की जाती है। व्रतियों के शरीर और मन को इतने नियमों में बाँध दिया जाता है कि पंचभूत को महसूस करने के अलावा कोई चेतना नहीं बच पाती। यही इस व्रत की महिमा भी है और उद्देश्य भी। कहते हैं कि इस स्थिति में व्रती सामान्य न होकर स्वयं भी छठी माँ या सूर्य देव का रूप बन जाते हैं। इसलिए छठ में जितना महत्व सूर्योपासना है उतना ही माहात्म्य व्रती का भी होता है। जिनके घरों में छठ होता है वहाँ व्रती के सहायक/सहायिका का महत्व व्रतियों से भी अधिक होता है। पूरे पूजा की रीढ़ होते हैं ये सहायक, सहायिका। 

छठ पर्व चार दिनों का मौनी मनन वाला उत्सव होता है। यूँ तो दीपोत्सव के साथ साथ ही इसकी तैयारी शुरू हो जाती है लेकिन नहाए-खाए से अधिकारिक रूप से व्रतियों का घर बँध जाता है। अरवा चावल के भात, चने की दाल और लौकी की तरकारी के साथ व्रत की विधिवत शुरुआत होती है। नहाए खाए के दिन घी, ज़ीरा, हींग, सेंधा नमक और कुएँ के जल से मिट्टी के चूल्हे पे प्रसाद बनता है। 

अगले दिन होता है खरना। इस दिन व्रती पूरे दिन निर्जला व्रत करते हैं। शाम को गन्ने के रस में चावल पकाकर खीर बनायी जाती है। चावल के आटे को चाँड़ कर पिट्ठा बनाया जाता है और बिना चत्ते वाली रोटी या पूरी बनायी जाती है। सारा प्रसाद पुनः कुएँ के जल, दूध, गुड़ और घी से बनाया जाता है। पूजन समाप्त करने के उपरांत व्रती प्रसाद ग्रहण करते हैं और फिर बचे हुए प्रसाद का वितरण केले के पत्ते और पीतल/काँसे/मिट्टी की ढकनी में होता है। इसके बाद व्रती पुनः निर्जला व्रत को संकल्पित होते हैं। 

षष्ठी के दिन निर्जला व्रत रखते हुए पूरे दिन पहले अर्घ्य की व्यवस्था की जाती है। ठेकुआ और कसार प्रसाद बनाया जाता है। घी, गुड़, सूखे मेवे, कुएँ के जल, घर पर धोए, सूखे और पिसाए गेहूँ और चावल के साथ प्रसाद बनाया जाता है। डल्ला और सूप सजाया जाता है। सूप में रखे जाने वाले सारे प्रसाद और पूजन सामग्री पर भखरे सिंदूर को लगाया जाता है। बाँस के डल्ले में पूजन की सामग्री इकट्ठी की जाती है। चावल और गेहूँ से  बने पकवान, फल में नारियल, ईख, केला, नारंगी और कन्द अवश्य होते हैं। बद्धी, जनेऊ, सिंदूर, आलता और अर्ता चढ़ाया जाता है। उसके अलावा त्रिया और व्रती अपनी श्रद्धा और क्षमता के अनुसार सूखे मेवे, मिठाई आदि प्रसाद के रूप में चढ़ाते हैं। 

अर्घ्य देने के लिए बाँस या पीतल के सूप पर चावल के अईपन और रोली से चित्रकारी कर उसमें प्रसाद सजाया जाता है। सूप के सामने वाले हिस्से पर मिट्टी या पीतल का दीया रखा जाता है। संध्याकाल सूर्यास्त के समय व्रती स्नान के बाद, बिना सीवन के वस्त्र पहन कर, शुद्धावस्था में जल मग्न होकर, हथेली में सिंदूर या अईपन लगवाकर, त्रियायें नाक से माँग तक जोड़े सिंदूर लगाकर सूप हाथ में लेते हैं। सहायक/सहायिका सूप  रखे दीये को जलाकर, पृथ्वी पर धूप और दीप जलाकर सूर्यदेव की पूजा अर्चना करते हैं। व्रती घूमती जाती हैं और जल-दूध की कच्ची लस्सी से सूर्यदेव को अर्घ्य दिया जाता है। 

षष्ठी के साँझ अर्घ्य के बाद भी निर्जला व्रत चलता है।  रात्रि में यथासम्भव जागरण करते हुए सूर्योपासना में मन लीन रखते हुए अगले दिन के सूर्योदय के सूर्यार्घ्य की तैयारी की जाती है। सप्तमी तिथि को अलसुबह, किरण फूटने के पहले पुनः व्रती जलमग्न होकर सूर्यदेव की आराधना करते हैं और उगते सूर्य को अर्घ्य देते हुए अपना  अनुष्ठान सम्पन्न करते हैं। प्रसाद खाकर पारण किया जाता है। उसके बाद भोजन ग्रहण किया जाता है। 

छठ पर्व में लोकगीतों का बहुत महत्व है। कहते हैं छठ के गीत ही इस महापर्व के महामंत्र हैं। इसलिए इन्हें शांतचित्त से, तल्लीन होकर, स्थिर वाणी में, ठहराव के साथ गाना चाहिए। छठ के गीत अन्य दिन नहीं गाए जाते। छठ पर्व के दौरान ही अभिमंत्रित किए जाते हैं और उन्हीं के साथ अगले एक साल के लिए स्मृति में विसर्जित  कर दिए जाते हैं। 

प्रकृति से जुड़े और प्रकृति को ही पूजने वाले इस महापर्व में कृत्रिमता का कोई स्थान नहीं है। मानव के चारित्रिक कलुष की कोई जगह नहीं है। बड़े छोटे का कोई बोध नहीं है। मात्र अगाध श्रद्धा, अनुशासन, प्रेम, सात्विक कामनाओं और भक्ति इन्हीं से सूर्यार्घ्य सम्पूर्ण होता है।

सभी को छठ महापर्व की शुभ और मंगलमय कामनायें !!

-Internet

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